Friday, April 7, 2017

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.जामिया खदीजा लिलबनात में 805 वा एक रोजा जश्न ख्वाजा गरीब नवाज मनाया गया
इस्लामिक रिसर्च स्कालर मुफ्ती साजिद हसनी कादरी ने अपनी तकरीर में कहा कि हज़रत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ रहमतुल्लाह अ़लैह की पैदाईश 9 रजब 530 हिजरी, सन् 1143  ईस्वी में "मध्य एशिया" के सीस्तान के संजर क़स्बे में हुई थी। आपके अब्बू जान का नाम हजरत ख़्वाजा ग़यासुद्दीन और अम्मी जान का नाम बीबी उम्मुल्वरा, अल्मौसूम माहे नूर था।आपकी अम्मी जान फ़रमाती हैं कि जब मेरा बेटा मोईनुद्दीन मेरे शिकम (पेट) में था, मेरा घर ख़ैर व बरकत से भर गया और जब मेरा बेटा मोईनुद्दीन पैदा हुआ, तो मेरा पूरा घर नूर से मामूर हो गया।जब ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की उम्र 14 साल की हुई, तो आपके अब्बू जान का साया सर से उठ गया। आप यतीम हो गए। इस हादसे के कुछ ही महीने बाद आपकी अम्मी जान का भी इन्तिक़ाल हो गया। इस पर आपने सब्र किया। आपका बचपन "असरारे इलाही और र्माफ़ते इलाही" से भरा हुआ था। आप बड़े ही रहम दिल और दयालू थे। आप हमेशा ग़रीबों, फ़क़ीरों और नेक लोगों से मोहब्बत किया करते थे और उनका अदब-व-एहतराम किया करते थे। अब्बू और अम्मी का साया सर से उठने के बाद, विरासत में जो कुछ भी आपको मिला था, सबको ख़ुदा की राह में पेश करके तालीम हासिल करने के लिए "बुख़ारा" आ गए। यहाँ आपने "क़ुरआन शरीफ़" को ज़बानी याद किया और "क़ुरआन हाफ़िज़" बने। तालिम से फ़ारिग़ होने के बाद आप "इराक़" तशरीफ़ ले गए। "इराक़" में आपने हज़रत ख़्वाजा उस्मान हारुनी से बैअ़त हासिल की और पूरे 20 साल तक आपने अपने पीर की ख़िदमत की। इन 20 सालों में आपने ऐसे-ऐसे मुजाहिदात किए कि हक़ीक़त की तमाम मंज़िलों को आपने तय कर लिया। आप दिन-रात ईबादते ईलाही में मशग़ूल रहा करते थे। आपकी जिन्दगी बहुत ही सादा थी। आपके बारे में कहा जाता है कि "आपने कभी भर पेट खाना नही खाया"।आपके बारे में यह भी मशहूर है कि आपने ज़िन्दगी भर एक ही लिबास को पहना और जब यह फट जाता था, तो उस पर पैबन्द लगा लिया करते थे। पैबन्द पे पैबन्द लगाने से आपका लिबास इतना भारी हो गया था कि आपके इन्तिक़ाल के बाद, जब उसे तौला गया तो उसका वज़न "साढ़े बारह सेर" था।
मुफ्ती नूर मोहम्मद हसनी ने अपनी तकरीर में कहा कि
शहंशाहों के शहंशाह ख्वाजा गरीब नवाज
दुनिया में कितने ही राजा, महाराजा, बादशाहों के दरबार लगे और उजड़ गए, मगर ख्वाजा साहब का दरबार आज भी शान-ओ-शोकत के साथ जगमगा रहा है। उनकी दरगाह में मत्था टेकने वालों की तादात दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। गरीब नवाज के दर पर न कोई अमीर है न गरीब। न यहां जात-पात है, न मजहब की दीवारें। हर आम-ओ-खास यहां आता है और अपनी झोली भर कर जाता है।
हिंदुस्तान के अनेक शहंशाहों ने बार-बार यहां आ कर हाजिरी दी है।
बादशाह अकबर शहजादा सलीम के जन्म के बाद सन्1570 में यहां आए थे। अपने शासनकाल में 25 साल के दरम्यान उन्होंने लगभग हर साल यहां आ कर हाजिरी दी। बादशाह जहांगीर अजमेर में सन् 1613 से 1616 तक यहां रहे और उन्होंने यहां नौ बार हाजिरी दी। गरीब नवाज की चौखट पर 11 सितंबर 1911 को विक्टोरिया मेरी क्वीन ने भी हाजिरी दी। इसी प्रकार देश के अनेक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों ने यहां जियारत कर साबित कर दिया है कि ख्वाजा गरीब नवाज शहंशहों के शहंशाह हैं।
इस महान सूफी संत की दरगाह पर हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य की छाया तक नहीं पड़ी है। ख्वाजा साहब के दरगार में मुस्लिम शासकों ने सजदा किया तो हिंदू राजाओं ने भी सिर झुकाया है।
हैदराबाद रियासत के महाराजा किशनप्रसाद पुत्र की मुराद लेकर यहां आए और आम आदमी की सुबकते रहे। ख्वाजा साहब की रहमत से उन्हें औलाद हुई और उसके बाद पूरे परिवार के साथ यहां आए। उन्होंने चांदी के चंवर भेंट किए, सोने-चांदी के तारों से बनी चादर पेश की और बेटे का नाम रखा ख्वाजा प्रसाद।
जयपुर के मानसिंह कच्छावा तो ख्वाजा साहब की नगरी में आते ही घोड़े से उतर जाते थे। वे पैदल चल कर यहां आ कर जियारत करते, गरीबों को लंगर बंटवाते और तब जा कर खुद भोजन करते थे। राजा नवल किशोर ख्वाजा साहब के मुरीद थे और यहां अनेक बार आए। मजार शरीफ का दालान वे खुद साफ करते थे। एक ही वस्त्र पहनते और फकीरों की सेवा करते। रात में फर्श पर बिना कुछ बिछाए सोते थे। उन्होंने ही भारत में कुरआन का पहला मुद्रित संस्करण छपवाया। जयपुर के राजा बिहारीमल से लेकर जयसिंह तक कई राजाओं ने यहां मत्था टेका, चांदी के कटहरे का विस्तार करवाया। मजार के गुंबद पर कलश चढ़ाया और खर्चे के लिए जागीरें भेंट कीं। महादजी सिंधिया जब अजमेर में शिवालय बनवा रहे थे तो रोजाना दरगाह में हाजिरी देते थे। अमृतसर गुरुद्वारा का एक जत्था यहां जियारत करने आया तो यहां बिजली का झाड़ दरगाह में पेश किया। इस झाड़ को सिख श्रद्धालु हाथीभाटा से नंगे पांव लेकर आए। जोधपुर के महाराज मालदेव, मानसिंह व अजीत सिंह, कोटा के राजा भीम सिंह, मेवाड़ के महाराणा पृथ्वीराज आदि का जियारत का सिलसिला इतिहास की धरोहर है। बादशाह जहांगीर के समय राजस्थानी के विख्यात कवि दुरसा आढ़ा भी ख्वाजा साहब के दर पर आए। जहांगीर ने उनके एक दोहे पर एक लाख पसाव का नकद पुरस्कार दिया, जो उन्होंने दरगाह के खादिमों और फकीरों में बांट दिया।
गुरु नानकदेव सन् 1509 में ख्वाजा के दर आए। मजार शरीफ के दर्शन किए, दालान में कुछ देर बैठ कर ध्यान किया और पुष्कर चले गए।
अंग्रेजों की खिलाफत का आंदोलन चलाते हुए महात्मा गांधी सन् 1920 में अजमर आए। उनके साथ लखनऊ के फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी भी आए थे। मजार शरीफ पर मत्था टेकने के बाद गांधीजी ने दरगाह परिसर में ही अकबरी मस्जिद में आमसभा को संबोधित किया था। उनके भाषण एक अंश था- हम सब भारतीय हैं, हमें अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराना है, लेकिन शांति से, अहिंसा से। आप संकल्प करें... दरगाह की पवित्र भूमि पर आजादी के लिए प्रतिज्ञा करें... ख्वाजा साहब का आशीर्वाद लें। इसके बाद वे खादिम मोहल्ले में भी गए। इसके बाद 1934 में गांधीजी दरगाह आए। वे हटूंडी स्थित गांधी आश्रम भी गए और अस्वस्थ अर्जुनलाल सेठी से मिलने उनके घर भी गए।
स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी दरगाह की जियारत की और यहां दालान में सभा को संबोधित किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू व उनकी पत्नी विजय लक्ष्मी पंडित और संत विनोबा भावे भी यहां आए थे।
देश की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी कई बार दरगाह आईं। एक बार वे संजय गांधी को पुत्र-रत्न (वरुण)होने पर संजय, मेनका व वरुण के साथ आईं और इतनी ध्यान मग्न हो गईं कि चांदी का जलता हुआ दीपक हाथ में लिए हुए काफी देर तक आस्ताना शरीफ में खड़ी रहीं। वह दीपक उन्होंने यहीं नजर कर दिया। कांग्रेस का चुनाव चिह्न पंजा भी यहीं की देन है। उन दिनों पार्टी का चुनाव बदलना जाना था। जैसे ही उनके खादिम यूसुफ महाराज ने आर्शीवाद केलिए हाथ उठाया, वे उत्साह से बोलीं कि मुझे चुनाव चिह्न मिल गया। इसी चुनाव चिह्न पर जीतीं तो फिर जियारत को आईं और एक स्वर्णिम पंजा भेंट किया। जियारत के बाद वे मुख्य द्वार पर दुपट्टा बिछा कर माथ टेकती थीं। उनके साथ राजीव गांधी व संजय भी आए, मगर बाद में राजीव गांधी अकेले भी आए। इसी प्रकार सोनिया गांधी भी दरगाह जियारत कर चुकी हैं। देश के अन्य प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्री आदि भी यहां आते रहते हैं। पाकिस्तान व बांग्लादेश के प्रधानमंत्री भी यहां आ कर दुआ मांग चुके हैं।
प्रोग्राम में सैकड़ों लोगों ने शिरकत की
मुफ्ती साजिद हसनी कादरी मुफ्ती नूर मोहम्मद हसनी शहादत हुसैन जाने आलम अंसारी आरिफ अंसारी शाहिद रजा मोहम्मद इस्लाम अब्दुल गुफरान बरकाती आदि मौजूद रहे
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